भारतीय ज्योतिष में शुक्र को शैया सुख व् अन्य सभी प्रकार के भौतिक सुखों का कारक कहा गया है । वृष व् तुला राशियों के स्वामी शुक्र एक महान तपस्वी के रुप में प्रतिष्ठित हैं । यही कारण है की शुक्र मीन राशि जिसके स्वामी गुरु हैं में उच्च के माने जाते हैं । कन्या राशि में ये नीच अवस्था में आ जाते हैं । शुक्र को समस्त सुखों की उन्नति का कारक माना जाता है । पुराणों में वर्णित दैत्यगुरु शुक्राचार्य की कहानी से हमें इनकी प्रकृति व् प्रवृत्ति सम्बन्धी बहुत से महत्वपूर्ण तथ्यों की जानकारी प्राप्त होती है ।
पुराणों के अनुसार ब्रह्मा जी के मानस पुत्र भृगु ऋषि का विवाह प्रजापति दक्ष की कन्या ख्याति से हुआ जिससे धाता,विधाता दो पुत्र व श्री नाम की कन्या का जन्म हुआ। भागवत पुराण के पुराणों में भृगु ऋषि को ब्रह्मा जी का मानस पुत्र कहा गया है । ऐसी कथा है की भृगु का विवाह प्रजापति दक्ष की कन्या ख्याति से हुआ और इन्होने दो पुत्रों व् एक कन्या को जन्म दिया । पुत्रों का नाम धाता व् विधाता रख्खा गया तथा कन्या को श्री नाम से जाना जाता है । भागवत पुराण ऋषि भृगु की कवी नाम की एक और संतान कही गयी है जो आगे चलकर शुक्राचार्य नाम से प्रसिद्द हुयी । जीव जो की महर्षि अंगीरा के पुत्र थे और कवी को समकालीन माना गया है । दोनों का यज्ञोपवीत संस्कार भी करीब एक ही समय हुआ । महर्षि अंगीरा और महर्षि भृगु की परस्पर सहमति से दोनों बालकों के बिद्याध्यन का जिम्मा अंगीरा ने लिया । अब कवी भी अंगीरा के पास आकर आरम्भिक शिक्षा ग्रहण करने लगे । जैसे जैसे समय आगे बढ़ा महर्षि अपने पुत्र गुरु की और विशेष ध्यान देने लगे । कवी महर्षि को इससे बड़ी ठेस पहुंची । इस भेदभावपूर्ण रवैये से आहत कवी ने अपनी शिक्षा बीच में छोड़कर जाने का निर्णय लिया और महर्षि अंगीरा से आज्ञा लेकर वहां से चले गए । अब आगे के मार्गदर्शन के लिए कवी महर्षि गौतम के पास पहुंचे जिन्होंने उन्हें महादेव की शरण में जाने की सलाह दी ।
कवी गोदावरी के तट पर शिव की घोर तपस्या में लीं हो गए । महादेव इनकी तपस्या से प्रसन्न हुए और उन्होंने कवी को मृत संजीवनी नाम की विद्या प्रदान की । यह ऐसी विधा मानी जाती थी जिसे पाने के लिए देवता भी बहुत उत्सुक रहते थे । इसके प्रभाव से मृत जीव को भी जीवित किया जा सकता था । शिव ने कवी को वरदान दिया की तुम जिस भी मृत व्यक्ति पर इसका प्रयोग करोगे वह जीवित हो जाएगा और आकाश में मौजूद सभी नक्षत्रों में तुम्हारा तेज सबसे अधिक होगा व् सभी विवाह आदि शुभ कर्म तुम्हारे उदित होने पर ही संपन्न होंगे । तत्पश्चात महृषि कवि ने दैत्य गुरु का कार्यभार संभाला । शुक्राचार्य से सम्बंधित एक और महत्वपूर्ण तथ्य जो इनके व्यक्तित्व को और भी महान बनाता है की शुक्राचार्य ने महृषि अंगीरा के पौत्र और वृहस्पति के पुत्र कच को संजीवनी विधा प्रदान करने में किंचित भी संकोच नहीं किया ।
कवी को शुक्र या शुक्राचार्य नाम कब और कैसे मिला इस बावत जानकारी हमें वामन पुराण से प्राप्त होती है । इसमें बताया गया है की एक बार महादेव और दानवराज अंधकया अंधकासुर में भयानक युद्ध जारी था । जितने भी दैत्य युद्ध में देवताओं के हाथों मारे जाते , महृषि शुक्राचार्य उन्हें फिर से जीवित कर देते और वो पुनः युद्ध में शामिल हो जोर शोर के साथ युद्ध करने लगते । इससे नंदी के साथ साथ अन्य सभी देवतागण संकट में आ गए और इन्होने इस समस्या से निजात पाने हेतु भगवान् शंकर से प्रार्थना की । तब भोलेनाथ ने दैत्यगुरु को निगल लिया । उदरस्थ कवी ने उदर में ही शिव की स्तुति आरम्भ कर दी । शुक्र की स्तुति से प्रस्सन होकर भगवान् शिव ने इन्हें बाहर निकलने की अनुमति दे दी । कहा जाता है शुक्राचार्य एक दिव्य वर्ष तक शिव के उदर में ही विचरते रहे और जब उन्हें कोई छोर न मिला तो उन्होंने पुनः शिव स्तुति आरम्भ कर दी । भगवान् भोलेनाथ इनकी तपस्या से प्रस्सन हुए और इन्हें अपना पुत्र बताकर शिश्न द्वार से बाहर आने की अनुमति प्रदान की । भगवान् भोलेनाथ ने कहा की मेरे उदरस्थ होने की वजह से तुम मेरे पुत्र हुए और आज से तुम समस्त चराचर जगत में शुक्र के नाम से जाने जाओगे । इस प्रकार कवी शुक्र के नाम से प्रख्यात हुए । ज्योतिष शास्त्र में शुक्राणु का कारक भी शुक्र को ही माना जाता है ।