भक्ति का साकार रूप हैं रामकृष्ण परमहंस (Ramakrishna Paramahamsa), संतों में संत शिरोमणि हैं रामकृष्ण, अपनी भक्ति की शक्ति से निराकार को साकार में रूपांतरित कर दे ऐसे दिव्य साधक – सरल चित्त, परम ज्ञानी हैं रामकृष्ण। जिनके छु भर लेने से साधारण जन को सत चित्त आनंद की अनुभूति हो जाए ऐसे चेतना के शिखर हैं रामकृष्ण। इनके विषय में कुछ भी लिखना, बोलना या व्यक्त करना सूर्य के प्रकाश को कमतर कर देना है। अव्यक्त को व्यक्त कर पाऊं ऐसी न मुझमे क्षमता है और न ही साहस, अतः त्रुटियों के लिए माँ काली से क्षमा याचना करता हूँ और लेख को आपकी ही प्रेरणा मानकर आगे बढ़ता हूँ …जय माँ काली…
रामकृष्ण परमहंस का जन्म – Ramakrishna Paramahamsa Ka Janam
स्वामी रामकृष्ण परमहंस का जन्म 1836 को फागुन सुदी दूज को बंगाल के हुगली जिले में कामारपुकुर ग्राम में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता खुदीराम चट्टोपाध्याय तथा माता चन्द्रमणी उन्हें गदाधर नाम से पुकारते थे। रामकृष्ण नाम तो उनके गुरु ने उन्हें बाद में दिया।
भाव से होती है भक्ति:
करीब पांच साल की आयु में उन्हें गांव की पाठशाला में भरती कराया गया। अगर ये पढ़ाई केवल जीविका उपार्जन के लिए है तो मुझे नहीं करनी ऐसी पढाई कहकर उन्होंने पढाई का त्याग कर दिया। कलकत्ता के दक्षिण में रानी रासमणि द्वारा बनाया गया माँ काली (Maa Kali) का एक बहुत बड़ा मन्दिर था, जहां रामकृष्ण के बड़े भाई रामकुमार पुजारी थे। रामकृष्ण यहीं आकर रहने लगे और माँ को ही अपना सर्वस्व मान बैठे। वे मां काली का घण्टों शृंगार करते और माँ से दर्शन देने की प्रार्थना करते रहते। रामकृष्ण माँ को निहारते रहते और रो रो कर माँ से प्रार्थना करते की मुझे अपना यंत्र बना लो माँ। कभी कभी तो देर रात को उठकर मंदिर की घंटियाँ बजाने लगते और पूजा में लीन हो जाते, माँ को चढ़ाये जाने वाले प्रसाद को पहले स्वयं चखते और यदि प्रसाद में कुछ कमी होती तो दुबारा बनाने को कहते। अन्य पुजारी – पुरोहित रामकृष्ण का ऐसा व्यवहार देखकर परेशान हो जाया करते, और जब वे रामकृष्ण से कहते की ये कैसी भक्ति है, ये भी कोई तरीका है पूजा का, तो रामकृष्ण कहते भक्ति तो भाव से होती है और भाव उठाया नहीं जा सकता है, ये तो उठता है। कई बार रात को भी उठता है तो पूजा उसी समय हो जाती है। रही बात प्रसाद की तो वो मैं किसलिए चखता हूँ की प्रसाद में कोई त्रुटि हो तो दूर की जा सके। जो प्रसाद मुझे ही न भाया वो माँ को कैसे भायेगा।
रामकृष्ण के ह्रदय में मां को पाने की ऐसी तीव्र प्यास जाग चुकी थी की उनकी हालत पागलों जैसी हो गयी। वे काली को ही अपना सर्वस्व समर्पित कर चुके थे। वे बार बार एक ही प्रार्थना करते की माँ मुझे दर्शन दो। माँ ने उन्हें संकेत भी दिए की तुम्हारी तैयारी अभी पूरी नहीं है, लेकिन रामकृष्ण की व्याकुलता इतनी बढ़ गयी की एक दिन पास ही टंगी हुई तलवार निकालकर मां काली से बोले – मां! दर्शन दो, नहीं तो अभी अपनी गर्दन धड़ से अलग किये देता हूँ। उनकी सच्ची भक्ति से प्रसन्न होकर मां काली ने उन्हें साक्षात दर्शन दिये। कहते हैं प्रथम बार माँ के दर्शन पाते ही रामकृष्ण मूर्छित हो गए, फिर धीरे धीरे अपनी सहज अवस्था में आ गए। इसके बाद तो रामकृष्ण के सामने कोई माँ का नाम बी ले लेता, या भजन कीर्तन में कहीं माँ का जिक्र आ जाता या किसी भी प्रकार उनके कान में माँ का नाम पड़ जाता तो वे मूर्छित हो गिर पड़ते और कई दिनों तक समाधि में लीन हो जाते। जब बाहर आते या किसी तरह लाये जाते तो फूट फूटकर रोने लगते। उनकी साधना और विचारों को सुनकर लोग उन्हें पागल भी कहने लगे। उनका उपचार करने वाले वैद्य ने लोगों को इस सत्य से अवगत कराया कि रामकृष्ण पागल नहीं, अपितु मां काली के परम भक्त व एक योगी हैं। 23 वर्ष की अवस्था में शारदामणि नामक कन्या से उनका विवाह बलपूर्वक करा दिया गया। पति की सेवा में रहने वाली शारदामणि को उन्होंने मां काली का दूसरा रूप बताया।
कुछ समय पश्चात् रामकृष्ण के जीवन में एक महान संत तोतापुरी का आगमन हुआ। तोतापुरी रामकृष्ण को देखते ही उनकी असीम संभावना को जान गए थे। तोतापूरी जानते थे की अभी रामकृष्ण को अद्वैत का अनुभव नहीं हुआ है। उन्होंने रामकृष्ण को संन्यास की दीक्षा दी और स्वयं से साक्षात्कार करवाने में रामकृशन की सहायता की। तोतापुरी जी महाराज की कृपा से रामकृष्ण अद्वैत को उपलब्ध हुए। रामकृष्ण को समाधि अवस्था में देखकर तोतागिरी ने कमरे का ताला बन्द कर दिया था। दरवाजा खोलने पर देखा कि रामकृष्ण की समाधि अचल थी। उन्होंने होशियारी से उनकी समाधि भंग की और वे वहीं एक वर्ष तक रह गये। रामकृष्ण को अब लोग परमहंस के नाम से जानने लगे। कहा जाता है कि मां काली उनके साथ एक सामान्य बालिका की तरह आकर उनके कार्यों में हाथ बंटाया करती थीं। नेवैद्य सामग्री साक्षात ग्रहण करती थीं।
सभी धर्मों से पाया सत्य एक है:
रामकृष्ण एकमात्र ऐसे संत हैं जिन्होंने विभिन्न धर्मों की साधना की और पाया की धर्म भले ही भिन्न हों, मंजिल एक ही है। ईश्वर, अल्लाह एक है और अभी धर्मों से सत्य से एक हुआ जा सकता है। जब मुस्लिम साधना शुरू की तो मंदिर की और देखते भी न थे, जैसे कोई वास्ता ही न रहा हो। अनलहक, अहम ब्रम्हास्मि की घोषणा की।