अंगारक, भौम, रक्ताक्ष तथा महादेव (Mahadev) पुत्र के नाम से प्रसिद्ध मंगल देवता एक क्रूर देव गृह के रूप में जाने जाते हैं। त्रिशूल, गदा, पद्म और भाला या शूल धारण किये इस गृह का रंग लाल माना जाता है और इसका वाहन भेड़ व् सप्ताह के सात दिनों में मंगलवार पर इसका आधिपत्य कहा गया है। मंगल गृह को देवताओं के सेनापति भी कहा जाता है। प्राणी मात्र के शरीर में मंगल ऊर्जा, आत्मविश्वास, अहंकार, ताकत, क्रोध, आवेग, वीरता और साहसिक प्रकृति को दर्शाता है और कुंवारा माना गया है। देव गृह सूर्य, चंद्र और वृहस्पति इनके मित्र गृह है तथा बुद्ध शत्रु हैं। मंगल मृगशिरा, चित्रा एवं धनिष्ठा नक्षत्रों का स्वामी है। अग्नि तत्व के मंगल का रत्न मूंगा, धातु पीतल, दिशा दक्षिण व् काल ग्रीष्म है। इन सब तथ्यों को समझने में मंगल देवता (Mangal Devta) के जन्म की कहानी बहुत सहायक है। इस कहानी के माध्यम से मंगल से सम्बंधित जानकारी सहज ही हमें प्राप्त हो जाती है।
मंगल ग्रह का प्रभाव – Mangal Grah Ka Prabhav
मंगल देवता के जन्म की कहानी – Mangal Devta Ke Janam Ki Kahani
स्कंदपुराण के अवंतिका खण्ड में मंगल ग्रह की उत्पत्ति का एक पौराणिक वृत्तांत मिलता है जिसके अनुसार एक समय उज्जयिनी पुरी नाम के एक स्थान में अंधक नाम का एक प्रसिद्ध दैत्य राज किया करता था। उसका एक महापराक्रमी पुत्र था जिसको कनक दानव के नाम से जाना जाता था। कनक दानव के पराक्रम का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है की एक बार उस महापराक्रमी वीर ने इन्द्र को ही ललकारना शुरू कर दिया। इन्द्र को इसका जवाब देने के लिए विवश होना पड़ा सो इंद्र ने कनक के साथ युद्ध कर उसे मार गिराया। इंद्र उस दानव के पिता अंधक को भली प्रकार जानते थे, ये भी जानते थे की अंधकासुर अपने पुत्र की मृत्यु का बदला अवश्य लेगा। अतः इंद्र देव अंधकासुर से बचने के लिए भगवान शंकर को ढूंढते हुए कैलाश पर्वत पर चले गए और भोलेनाथ की शरण ली।
इन्द्र ने भगवान शिव को सारी बात विस्तारपूर्वक सुनाई और अंधक से अपने प्राणो की रक्षा की प्रार्थना की की हे भगवान! मुझे अंधकासुर से अभय दीजिए। इस पर शिव ने इंद्र को अभय प्रदान किया और अंधकासुर को युद्ध के लिए ललकारा, कथानुसार दोनों के बीच भयंकर युद्ध हुआ, और उस समय लड़ते-लड़ते भगवान शिव के मस्तक से पसीने की एक बूंद पृथ्वी पर गिर पड़ी जिससे अंगार के जैसे लाल अंग वाले भूमिपुत्र का जन्म हुआ। शिव के इस ही पुत्र को मंगल, अंगारक, रक्ताक्ष, महादेव पुत्र या हनुमान आदि नामों से पुकारा जाने लगा। फिर ब्राह्मणों द्वारा इन्हीं नामों से स्तुति कर शिव पुत्र को ग्रहों के मध्य प्रतिष्ठित किया गया। उसी स्थान पर ब्रह्मा जी द्वारा मंगलेश्वर नामक एक उत्तम शिवलिंग की स्थापना की गयी। वर्तमान में यह स्थान उज्जैन में है तथा मंगलनाथ मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है।
ब्रह्म वैवर्त पुराण में ज़िक्र मिलता है की एक समय दैत्य राज हिरण्यकश्यप का भाई हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को चुरा लिया और सागर में ले गया। तत्पश्चात भगवान् विष्णु ने वाराह अवतार लिया और हिरण्याक्ष को खोज कर उसके साथ युद्ध किया जिसमे हिरण्याक्ष मृत्यु को प्राप्त हुआ तथा पृथ्वी को रसातल से निकाल कर सागर पर स्थापित कर दिया गया तथा इस पृथ्वी पर ही परम पिता ब्रह्मा ने विश्व की रचना की। पृथ्वी सकाम रूप में आयी और श्री हरि की वंदना करने लगी। पृथ्वी के मनोहर आकर्षक रूप को देख कर श्री हरि काम के वशीभूत हुए और इन्होने दिव्य वर्ष पर्यंत पृथ्वी के संग रति क्रीडा की। इस प्रकार विष्णु भगवान् और पृथ्वी के संयोग से एक महातेजस्वी बालक का जन्म हुआ जिसे मंगल ग्रह के नाम से जाना जाता है। इसी कथा का वर्णन देवी भागवत में भी मौजूद है।