मकर लग्न की कुंडली में गुरु बारहवें और तीसरे भाव के स्वामी हैं, एक अकारक गृह बनते हैं । वहीँ राहु अपनी मित्र राशि में शुभ फलप्रदायक होते हैं और शत्रु राशि में अशुभ । राहु के मित्र राशिस्थ होने पर सम्बंधित भाव के स्वामी की स्थिति देखना भी अनिवार्य है, यानी जिस भाव में राहु हैं उस भाव के मालिक कहीं छह, आठ अथवा बारहवें भाव में तो स्थित नहीं है, या किसी अन्य कारण से कमजोर तो नहीं है । यदि ऐसा है तो राहु की दशाओं में शुभ परिणाम प्राप्त नहीं होते । आइये विस्तार से जानते हैं गुरु व् राहु की युति से किन भावों में बनता है गुरुचण्डाल योग, किस गृह की की जायेगी शांति….
मकर राशि वृहस्पति देवता की नीच राशि है । प्रथम भाव में स्थित होने पर गुरु गृह की शांति अनिवार्य है । गुरु की शांति करवा ली जाए तो राहु की दशाओं में जातक को अत्यंत शुभ फल प्राप्त होते हैं, प्रेम विवाह का योग बनता है, व्यापार में लाभ होता है, विदेश यात्राओं से उन्नति होती है, भाग्य उन्नत होता है, दैनिक आय में दिनोदिन बढ़ौतरी होती है ।
दुसरे भाव में आकर गुरु अपनी दशाओं में अशुभ फल प्रदान करने के लिए बाध्य हैं । वहीँ राहु मित्र राशिस्थ होकर शुभ फलदायक हैं । राहु की दशाओं में शुभ फल प्राप्त होते हैं । दुसरे भाव से सम्बंधित होने पर गुरु की दशाएं कष्टकारी होती हैं, गुरु की शांति अनिवार्य है ।
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तृतीय भाव में स्थित होने पर राहु व् गुरु दोनों की शांति करवाई जाती है । दोनों की दशाओं में जातक की व्यर्थ की भागदौड़ लगी रहती है, परिश्रम बहुत अधिक होता है और लाभ अति अल्प मात्रा में प्राप्त हो पाता है ।
मेष राहु की शत्रु राशि है । इस भाव से सम्बंधित होने पर गुरु व् राहु की शांति करवाई जायेगी ।
वृष राशि में आकर राहु अपनी दशाओं में शुभ फल प्रदान करते हैं । गुरु की दशाओं में जातक का अस्वस्थ रहता है, संतान को/से कष्ट होता है, बड़े भाई बहन से मतभेद हो जाते हैं । गुरु की शांति अनिवार्य हो जाती है ।
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इस भाव में राहु कुछ शुभ फल प्रदान कर सकते हैं यदि बुद्ध विपरीत राजयोग की स्थिति में हों । अन्यथा राहु व् गुरु दोनों की शांति अवश्य करवानी पड़ती है । यदि लग्नेश शनि बलवान हों और गुरु छह, आठ अथवा बारहवें भाव में ही कहीं स्थित हो जाएँ तो शुभ फल दायक हो जाते हैं । इसे विपरीत राजयोग कहा जाता है । ऐसी स्थिति में गुरु की शांति नहीं करवाई जाती ।
सप्तम भाव में गुरु एक अकारक गृह होकर उच्च के हुए हैं और राहु अपनी अति शत्रु राशि में है । राहु व् गुरु दोनों ग्रहों को दशाएं अशुभ फलदायक होंगी । दोनों ग्रहों की शांति अनिवार्य है ।
आठवाँ भाव त्रिक भाव में से एक होता है, शुभ नहीं कहा जाता है । आठवाँ भाव वैसे ही भौतिक दृष्टि से शुभ नहीं कहा गया है । गुरु व् राहु भी इस भाव में अशुभता में ही वृद्धिकारक होते हैं । यहाँ स्थित होने पर राहु व् गुरु दोनों की शांति करवाई जाती है । यदि लग्नेश शनि बलवान हों और गुरु छह, आठ अथवा बारहवें भाव में ही कहीं स्थित हो जाएँ तो शुभ फल दायक हो जाते हैं । इसे विपरीत राजयोग कहा जाता है । ऐसी स्थिति में गुरु की शांति नहीं करवाई जाती ।
नवम भाव में मित्र राशिस्थ राहु शुभफलदायक होते हैं । कन्या राशिस्थ गुरु की शांति करवाई जायेगी ।
दशम भाव में राहु की दशाएं शुभ फलदायक होती हैं । गुरु की दशाओं में अशुभ फल प्राप्त होते हैं । गुरु की शांति अनिवार्य है ।
ग्यारहवें भाव में आने पर राहु व् गुरु दोनों की दशाएं अशुभ फलदायक होती हैं । दोनों ग्रहों की शांति करवाई जानी चाहिए ।
बारहवां भाव त्रिक भावों में से एक होता है, शुभ नहीं माना जाता है । दोनों ग्रहों की दशाओं में व्यर्थ का व्यय लगा ही रहता है । कोर्ट केस में धन व्यय होने के योग बनते हैं । इस भाव में आने पर राहु व् गुरु दोनों की शांति अनिवार्य है ।
यदि लग्नेश शनि बलवान हों और गुरु छह, आठ अथवा बारहवें भाव में ही कहीं स्थित हो जाएँ तो शुभ फल दायक हो जाते हैं । इसे विपरीत राजयोग कहा जाता है । ऐसी स्थिति में गुरु की शांति नहीं करवाई जाती ।
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