श्री गुरु नानक देव जी (Shri Guru Nanak Dev Ji) का जन्म 15 अप्रैल, 1469 में तलवंडी ग्राम में हुआ, जो की अब लाहौर पाकिस्तान से 65KM पश्चिम में स्तिथ है। उनके पिता बाबा कालूचंद्र बेदी और माता तृप्ता नें उनका नाम नानक रखा। उनके पिता गाओं के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में से थे और गाओं में ही स्थानीय राजस्व प्रशाशनिक अधिकारी थे। तलवंडी (Talwandi) का नाम आगे चलकर नानक के नाम पर ननकाना पड़ गया। इनकी बहन का नाम नानकी था। वर्ष 1485 में नानक ने जीविका उपार्जन के लिए दौलत खान लोधी के स्टोर में अधिकारी के रूप में नौकरी प्रारम्भ की। करीब 2 वर्ष पश्चात् सन 1487 में नानक का विवाह सुलक्खनी से हुआ और इनके दो पुत्र हुए। पहले पुत्र का नाम श्रीचन्द्र और दुसरे पुत्र को लखमीदास नाम से पुकारा जाने लगा।
भौतिक विषयों को लेकर नानक का रवैया बचपन से ही उदासीन रहा सो पढ़ने लिखने में नानक का मन कहाँ लगना था। सो मरदाना, लहना, बाला और रामदास को साथ लेकर नानक तीर्थाटन को निकल पड़े।
गुरु जी चारों ओर घूमकर उपदेश करने लगे। नानक भारत, अफगानिस्तान, फारस और अरब के मुख्य मुख्य स्थानों पर गए। इन यात्राओं को पंजाबी में “उदासियाँ” कहा जाता है।
ईश्वर एक है – God Is One
अब तक नानक गुरु नानक कहलाये जाने लगे थे। वे हमेशा अंधविश्वास व अन्य दूसरी धार्मिक कुरीतियों के खिलाफ खड़े रहते। गुरु नानक (Guru Nanak) कभी भी मूर्ती पूजा के पक्षधर नहीं रहे। हिन्दू मुस्लिम और अन्य सभी धर्मों के अनुयाइयों के मन पर गुरु जी की गहरी छाप पड़ी। उनके सभी उपदेशों का सार होता था ईश्वर एक है और केवल अंतर साधना से उसमे लीन हुआ जा सकता है। उनके दर्शन में वैराग्य के साथ साथ तत्कालीन राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक स्थितियों पर भी उनकी पैनी दृष्टिगोचर होती है। अंध भक्तो की शिकायत पर इब्राहिम लोदी के शाशनकाल में इन्हें जेल में डाल दिया गया। जब पानीपत की लड़ाई में इब्राहिम की हार हुई और बाबर ने शाशन की बागडोर अपने हाथ में ली तब इन्हे जेल से रिहा कर दिया गया।
उत्तराधिकारी की घोषणा:
जीवन के अंतिम दिनों में गुरु नानक की ख्याति सुदूर देशों में फ़ैल गयी थी, परन्तु अब गुरु जी स्वयं विरक्त होकर अपने परिवार के साथ रहने लगे थे और दान पुण्य, भंडारा आदि करने लगे। उन्होंने करतारपुर नामक एक नगर बसाया, जो कि अब पाकिस्तान में है और एक बड़ी धर्मशाला का निर्माण करवाया। इसी स्थान पर 22 सितंबर 1539 ईस्वी को गुरु जी परमात्मा में विलीन हो गए। मृत्यु से पहले उन्होंने अपने शिष्य भाई लहना को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया जो बाद में गुरु अंगद देव के नाम से जाने गए।
उनकी भाषा “बहता नीर” थी जिसमें फारसी, मुल्तानी, पंजाबी, सिंधी, खड़ी बोली, अरबी, संस्कृत और ब्रजभाषा के शब्द समा गए थे। उनके कुछ प्रमुख उपदेश इस प्रकार हैं:
1. ईश्वर की मौजूदगी हर जगह है। सबके साथ प्रेम पूर्वक रहना चाहिए।
2. अपने हाथों से परिश्रम करें, लोभ को त्याग कर एवं न्यायोचित साधनों से धन का अर्जन करना ही उचित है।
3. कभी भी, किसी का हक नहीं छीनना चाहिए।
4. अपनी कमाई का ‘दसवंद’ (1/10) परोकार के लिए एवं अपने समय का (1/10) प्रभु-सिमरन अथवा ईश्वर के लिए लगाना चाहिए।
5. जरूरतमंद की हमेशा सहायता करनी चाहिए।
6. माया (धन) को जेब में ही स्थान देना चाहिए, अपने हृदय में नहीं।
7. स्त्री-जाति का आदर करना चाहिए।
8. गुरु जी ने चिंता-मुक्त रहकर कर्म करने को उत्तम कहा है।