सर्वप्रथम आपसे साँझा करना चाहूंगा की माँ छिन्नमस्तिका के बारे में जानना माँ को जान लेना नहीं है । इसे अपने मन में बिठा लें तो साधना का मार्ग हमेशा खुला रहता है अन्यथा अपना ही अहम की (मैं तो जानता हूँ) सबसे बड़ी बाधा बन जाता है और साधना के पथ पर कोई गति संभव नहीं हो पाती ।
मूलाधार चक्र में कुंडलिनी (कुंडली मारकर बैठे सर्प ) शक्ति का मूर्त रूप है मां छिन्नमस्तिका । कुंडलिनी जागरण से सम्बंधित अनेक साधनाओं में से एक साधना है माँ छिन्नमस्ता को प्रसन्न करना । चित्र में माँ को अपना ही खून पीते दिखाया गया है जो की इस तथ्य को दर्शाता है की माँ अपना ही रक्त पीकर सबल रहती है । ठीक इसी प्रकार जीवों में विराजमान कुंडलिनी शक्ति उनके स्वयं के रक्त से ही पोषित होती है । कुंडलिनी शक्ति जाग्रत होने पर माया का प्रभाव क्षीण हो जाता है, संभवतः यही कारण है की माँ को निर्वस्त्र दिखाया गया है । देवी के पाओं के नीचे कामदेव तथा रति हैं जो काम ऊर्जा का प्रतीक हैं । यही काम ऊर्जा ऊधर्वगामी होने पर ही प्रज्ञा रुपी कमल खिलता है और साधक अपनी असीम सम्भावनों को उपलब्ध होता है । धन्य है यह धरती जहाँ अहम ब्रह्मास्मि, अनलहक, शिवोहम जैसी घोषणाएं अनेकों बार हुई ।
Also Read: केदारनाथ धाम का इतिहास History of Kedarnath Dham
माँ छिन्नमस्तिका को प्रचंड चंडिका के रूप में भी जाना और पूजा जाता है । पौराणिक धर्म ग्रंथों मार्कंडेय पुराण व शिव पुराण में उल्लेखित है की जब माँ छिन्नमस्तिका ने चंडी का रूप धरकर राक्षसों का संहार किया और दैत्यों को परास्त कर देवों को अभय का वरदान दिया तो चारों दिशाएं माँ के जयघोष से गूँज उठी । परन्तु इतना होने पर भी जब सहायक सहचरियों अजया और विजया की रुधिर पिपासा शांत नहीँ हो पाई तो माँ ने अपना मस्तक काटकर अपने रक्त से उनकी रक्त प्यास बुझाई । इस वजह से माता को छिन्नमस्तिका नाम से भी पुकारा जाने लगा ।
मान्यता है की जहां भी देवी छिन्नमस्तिका का निवास होता है वहां पर चारों ओर भगवान शिव का स्थान भी होती ही है ।
एक बार माँ छिन्नमस्तिका अपनी दो सहचरियों के संग मन्दाकिनी नदी में स्नान के लिए गयीं । स्नान के पश्चात् माँ की दोनों सहचरियों को बहुत तेज भूख का आभास होने लगा । सहचरियों ने भोजन के लिये भवानी से कुछ मांगा । माँ ने कुछ देर प्रतिक्षा करने को कहा । सहचरियों की भूख बढ़ती जा रही थी । कहते हैं की भूख कि पीड़ा से उनका रंग काला होता जा रहा था । तब सहचरियों ने नम्रतापूर्वक माँ से कहा की “मां तो भूखे शिशु को अविलम्ब भोजन प्रदान करती है” । ऎसा वचन सुनते ही भवानी ने बिना एक भी क्षण गंवाए, खडग से अपना ही सिर काट दिया । कटा हुआ सिर उनके बायें हाथ में आ गिरा और तीन रक्तधाराएं बह निकली । दो धाराओं को उन्होंने सहचरियों की और प्रवाहित कर दिया तीसरी धारा जो ऊपर की प्रबह रही थी, उसे देवी स्वयं पान करने लगी । अब माँ की दोनों सहचरियां रक्त पान कर तृ्प्त हो गयीं थीं । मान्यता है की तभी से माँ को छिन्नमस्ता के रूप में जाना जाने लगा और माँ इस “छिन्नमस्तिका” नाम से विख्यात हो गयीं ।
माँ को अपने भक्त अत्यंत प्रिय हैं । भक्तों के लिए वात्सल्य की प्रतिमूर्ति है माँ । यदि भक्तों के लिए माँ को अपना सर भी काटना पड़ जाये तो माँ देर नहीं करती । अपना लहू पिलाकर भी भक्तों को नया जीवन प्रदान करती है माँ । माँ का बखान करना तो अपने बस की बात नहीं है, बस यूँ ही समझ लीजिये की कुछ कुछ ऐसी है हमारी माँ छिन्नमस्तिका ….. जय माँ …