साईं बुल्ले शाह (Sai Bulleh Shah) सूफी पंजाबी संतों के आसमान का ऐसा सितारा जिसकी चमक से पाषाण हृदय शक्शियत को भी परमात्मा की झलक मिल जाये। सादगी की ऐसी गरिमा की महलों की चकाचौंध भी फीकी पड़ जाए। भारत या पकिस्तान का शायद ही कोई बाशिंदा हो जो बुल्ले शाह जैसी रूहानी शक्शियत से अपरिचित हो।
यूँ तो बुल्ले के जन्म के बारे में इतिहासकार एकमत नहीं है और बुल्ले शाह या बुल्ले के चाहने वालो को इससे कतई फर्क पड़ता भी नहीं दिखता। जनश्रुतियों की माने तो मीर अब्दुला शाह कादरी शतारी (बुल्ले शाह) का जन्म 1680 इसवी में बहावलपुर सिंध के गांव उच गैलानीयां में ऊंची जाति के एक परिवार में हुआ। बुल्ले शाह (Bulleh Shah) के पिता सैय्यद शाह मुहम्मद दरवेश जाने माने मौलवी थे जो मस्जिद में बच्चों को मजहबी तालीम देते थे। आजीविका की तलाश में उन्हें गीलानिया छोड़ कर जाना पड़ा। वे परिवार सहित कसूर (पाकिस्तान) के दक्षिण पूर्व में चौदह मील दूर “पांडो के भट्टिया” गाँव में बस गए। उस समय बुल्ले शाह की आयु करीब छह वर्ष की रही होगी। इसके बाद बुल्ले शाह के जीवन भर कसूर में ही रहने के प्रमाण मिलते हैं। इनके पिता ऊंची जाती “सैयद” से सम्बन्ध रखते थे। पिता के नेक जीवन की वजह से लोग इन्हें दरवेश कहकर पुकारते। इतिहासकारों के अनुसार बुल्ले शाह मुहम्मद की पुत्री फ़ातिमा के वंशजों में से थे।
मुर्शिद से मिलन की तड़प साईं बुल्लेशाह को फकीर हजरत शाह कादरी के द्वार पर खींच लाई। जाति से अराई हजरत इनायत शाह का डेरा लाहौर में था। बुल्ले शाह हजरत इनायत शाह को अपना गुरु मान चुके थे जो की एक निम्न जाती से सम्बन्ध रखते थे सो बुल्ले के परिवार को इस बात से काफी चोट पहुँची थी। उन्होंने बुल्ले शाह को समझा बुझा कर मनाने का प्रयास किया परन्तु उन्हें भान ही नहीं था की बात बहुत आगे निकल चुकी थी। परिवार जनों के साथ हुई तकरार का जिक्र उन्होंने बड़े ही खूबसूरत ढंग से किया है:
भावार्थ – बुल्ले शाह (Bulleh Shah) कहते हैं की बुल्ले को समझाने उनकी बहने आईं। उन्होंने कहा की नबी के खानदान और अली के वंशज होकर क्यों अराई की खातिर लोकनिंदा का कारण बनते हो। परन्तु बुल्ले शाह जी को कहाँ जाती पाती का भान रहा था। उन्होंने उत्तर दिया –
भावार्थ – बुल्ले शाह जी ने फ़रमाया जो हमे सैयद कहेगा उसे दोजख की सजा मिलेगी और जो हमे अराई कहेगा वह स्वर्गो में झूला झूलेगा।
बुल्ले शाह के जीवन के बहुत से रोचक प्रसंगों में से एक जो बहुत अधिक प्रचलित भी है की यहाँ पर चर्चा आवश्यक हो जाती है। एक दिन बुल्ले शाह इनायत जी के पास बगीचे में पहुँचे। वे अपने कार्य में इतने तल्लीन थे की उन्हें बुल्ले शाह के आने की कोई खबर ही हुई। बुल्ले शाह ने बगीचे में लगे आमों की और बस देखा भर और पेड़ों से आम गिरने लगे। गुरु जी ने पूछा, “क्या यह आम अपने तोड़े हैं?” बुल्ले शाह ने कहा न तो मैं पेड़ पर चढ़ा और न ही पत्थर फैंके। भला मैं कैसे आम तोड़ सकता हूँ। बुल्ले शाह को गुरु जी ने ऊपर से नीचे तक देखा और कहा, “अरे तू चोर भी है और चतुर भी”। बुल्ला गुरु जी के चरणों में झुक गए। बुल्ले ने अपना नाम बताया और कहा मैं रब को पाना चाहता हूँ। साईं जी ने कहा, “बुल्लिहआ रब दा की पौणा। एधरों पुटणा ते ओधर लाउणा।” इन सीधे – सादे सटीक शब्दों में बुल्ले शाह को गुरु जी ने गहरे राज का सूत्र दे दिया। मन को (बाहर से भीतर) संसार की तरफ से हटाकर परमात्मा की ओर मोड़ देने से रब मिल जाता है। बुल्ले शाह ने इस प्रथम दीक्षा को अपने प्राणो में बसा लिया। बुल्ले शाह बेखुदी के आलम में मदमस्त बहे और उन्होंने अपने अनुभव सधुक्कड़ी भाषा में काफियों के रूप में व्यक्त किये।