द्वितीय भाव लग्न स्थान से दुसरे नंबर पर आता है । इसे धन भाव या द्वितीय भाव भी कहा जाता है । पुरातन काल में मोक्ष मानव जीवन का परम ध्येय माना जाता था । अल्टीमेट लिब्रशन में ही मानव देह की सार्थकता समझी जाती थी । कुटुंब, धन व् पत्नी आदि को सत्य की राह में बाधक माना जाता था । ज्योतिष का प्रयोग भी भगवत प्राप्ति के माध्यम की तरह किया जाता था । यही प्रमुख वजह थी की ऋषि मुनि और विद्वान जन इस भाव को उतना शुभ नहीं मानते थे । इस भाव को मारक भाव कहा जाता था । किन्तु आज धन के बिना जीवन की कल्पना भी करीब करीब असंभव जान पड़ती है । आज के युग में इस भाव का बहुत अधिक महत्व है । काल पुरुष कुंडली में द्बितीय भाव में वृष राशि आती है जिसके स्वामी दैत्यगुरु शुक्र हैं । इससे जातक की वाणी, दायीं आंख,नाक, मुँह, जीभ और कुटुंब से प्राप्त होने वाले संस्कारों के बारे में जानकारी प्राप्त की जाती है । इस भाव से कुटुंब के धन व् मित्र धन की जानकारी प्राप्त की जाती थी । रवि, मंगल के इस भाव में होने पर नाजायज खर्चा होता है । शनि देव के इस भाव में होने पर जातक कंजूस या पैसा बचाने वाला होता है । बुद्ध के इस भाव में होने पर जातक पैसे का मैनेजमेंट बहुत अच्छे से करता है । बुद्ध बुद्धि व् मैनेजमेंट का प्रतीक है इसलिए पैसे का लेन देन बहुत बुद्धिमानी से करता है । वहीँ चंद्र या शुक्र के इस भाव में आने से जातक सौंदर्य प्रसाधनों पर खर्चा करता है , परिवार के आनंद के लिए पैसों का व्यय करता है । गुरु के इस भाव में आने पर यही पैसा धर्म के कार्य में, किसी दुखी जन की भलाई में व्यय होता है । क्रूर गृह के इस भाव में आने पर ऐसा देखा गया है की जातक की वाणी कठोर या रोबीली होती है और सौम्य गृह के इस भाव में आने से जातक सॉफ्ट स्पोकन देखा जा सकता है ।
इस भाव से जातक की लिक्विड मनी का विचार किया जाता है । कुंडली में मौजूद सभी केंद्रों से एक भाव आगे आने वाले भाव से भी धन का विचार किया जाता है । जैसे पंचम भाव से अचानक प्राप्त होने वाले धन के बारे में जाना जाता है । अष्टम से कुटुंब से प्राप्त धन, पत्नी के धन और ग्यारहवें भाव से कर्म से प्राप्त धन की जानकारी प्राप्त की जाती है । यदि लग्न कुंडली के दुसरे भाव में सूर्य या गुरु हों तो जातक कुलीन परिवार का माना जाता है । क्रूर ग्रहों मंगल, शनि या राहु के आने से ऐसी संभावना बनती है की परिवार के बुजुर्ग दूसरों को दुःख देने वाले रहे हों । गुरु या केतु के रहने पर जातक के बुजुर्ग साधू प्रवृत्ति के होने की संभावना बनती है । तीसरे भाव का द्वादश भाव होने के कारण इस भाव को भाई बहनों में कमी के रूप में भी देखा जाता है । चौथे भाव का लाभ भाव होता है । जातक को मकान, वाहन, संपत्ति का सुख प्रदान करता है व् माता के सुख में भी वृद्धिकारक है । पंचम भाव का कर्म भाव होता है तो संतान को प्राप्त होने वाले राजकीय सम्मान, प्रतिष्ठा दर्शाता है । सप्तम से आठवां भाव होता है ।
अतः पत्नी के ससुराल की जानकारी प्रदान करता है व् साथ ही साझेदारों के कष्टों को भी प्रकाश में लाता है । नवम से षष्ठ भाव होता है सो पिता के स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएं उजागर करता है । दूसरा भाव ग्यारहवें भाव का सुख भाव होता है । बड़े भाई बहन को प्राप्त होने वाले सुखों का अनुमान भी इस भाव से लगाया जाता है । घर में धन रखने के स्थान को दूसरा भाव कहा जा सकता है ।